नगर निगम अस्पतालों में ‘पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप’ का सच उजागर करने वाला अध्ययन

  • श्वेता मराठे

पिछले दो दशकों में, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) यानी सार्वजनिक-निजी भागीदारी को स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए एक सामान्य नीति के रूप में अपनाया गया है। इस मॉडल से अपेक्षा की जाती है कि यह निजी क्षेत्र के कौशल्य और संसाधनों का लाभ उठाकर सेवाओं को सुधरेगा। बड़े शहरों में पीपीपी योजनाएँ बार-बार घोषित की जाती हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर नगर निगमों में इनकी असली स्थिति क्या है – यह बहुत कम सामने आता है। PPP सम्बन्धी निर्णय कैसे लिए जाते हैं? मुख्य भूमिका कौन निभाते हैं? जवाबदेही और सेवा देने के लिए कैसी व्यवस्था होती है?

साथी संस्था ने 2023-24 में एक अध्ययन किया, जिसमें महाराष्ट्र के दो बड़े शहरों के सार्वजनिक अस्पतालों में क्लिनिकल और डायग्नोस्टिक सेवाओं के लिए लागू किये गए पीपीपी का विश्लेषण किया गया। यह अध्ययन 25 साक्षात्कारों, अस्पतालों की मैपिंग, कुछ नगर महापालिकाओं के आंकड़े, और तकनीकी दस्तावेजों की समीक्षा पर आधारित था। यह अध्ययन एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के बारे में हमारी जानकारी बढ़ाता है— शहरों में महापलिकाओं के तहत पीपीपी का कामकाज, निर्णय लेने की प्रक्रिया, संचालन संबंधी चुनौतियाँ, और स्वास्थ्य सेवाओं पर इसका प्रभाव क्या होता है।

महाराष्ट्र के नगर निगम अस्पतालों में पीपीपी के बारे में मुख्य बिंदु:

  • दोनों शहरों में पीपीपी मॉडल का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुआ है। इसमें सरकारी अस्पतालों या मैटरनिटी होम्स को निजी एजेंसियों को पूरी तरह सौंपना; लैब, इमेजिंग या डायलिसिस सेवाएं आउटसोर्स करना; और आईसीयू डॉक्टरों की आपूर्ति के लिए निजी एजेंसियों से ठेका लेना शामिल है।
  • कई पीपीपी सुविधाएं पूरी तरह से काम नहीं कर रही थीं, या असंतोषजनक तरीके से चल रही थीं, जबकि इनमें सरकारी धन का काफी निवेश हुआ था।
  • इन दोनों महानगरों में पीपीपी के तहत अस्पतालों में मरीजों से लिए जाने वाले शुल्क, इन्हीं शहरों के सरकारी अस्पतालों की दरों से 2 से 25 गुना ज्यादा पाए गए।
  • कम आय वाले तबकों के लिए निःशुल्क या रियायती सेवाएं अक्सर उपलब्ध नहीं थीं, या उनके बारे में लोगों को ठीक से जानकारी नहीं दी गई थी।
  • कई मामलों में अपात्र (गैर-योग्य) स्टाफ तैनात किया गया और मरीजों की सुरक्षा में गंभीर चूकें पाई गईं, जिनमें कई आईसीयू में हुई मौतें भी शामिल थीं।
  • सेकेंडरी आउटसोर्सिंग (मतलब ठेका लेने वाली एजेंसी ने खुद किसी और एजेंसी को ठेका दे दिया) और निगरानी तंत्र का अभाव – यह आम था। जवाबदेही के उपाय बेहद कमजोर थे — कुछ करार पत्रों (MOU) में बुनियादी सेवा मानक और सेवा विवरण भी नहीं थे।
  • लाभ कमाने वाली कंपनियों और चैरिटेबल संस्थाओं — दोनों ही तरह के पीपीपी में ढांचागत खामियां समान रूप से दिखीं।
  • कुल मिलाकर, नगर निगम स्तर के अस्पताल पीपीपी में सरकार द्वारा निगरानी बेहद कमजोर रही है, और राजनीतिक हस्तक्षेप भी देखा गया। सार्वजनिक संसाधन (जैसे ज़मीन, इमारतें, बिजली-पानी आदि) निजी कंपनियों को रियायती शर्तों पर सौंप दिए जा रहे हैं, लेकिन आम जनता को उसका अपेक्षित लाभ नहीं मिल रहा है।

यह ब्लॉग इसी अध्ययन से ली गई पाँच केस स्टोरीज़ या प्रकरण प्रस्तुत करता है, जो यह दिखाती हैं कि अस्पताल-आधारित पीपीपी कैसे काम करती हैं, कहाँ चूक होती है, और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर इसके क्या प्रभाव पड़ते हैं।

केस स्टोरी 1: ICU सेवा या विफलता का आईना? – विशेषज्ञ अस्पताल में ICU की पीपीपी

2011-12 में नगर निगम ने अपने एक विशेषज्ञ सेवाओं वाले अस्पताल में ICU स्थापित करने हेतु ₹55 लाख का निवेश किया—जिसमें आधुनिक उपकरण और 5 संविदा डॉक्टरों की नियुक्ति शामिल थे। लेकिन यह ICU नगर निगम द्वारा कभी शुरू ही नहीं हुआ, और लगभग 10 साल तक बंद पड़ा रहा। बाद में इसे एक निजी कंपनी को 30 साल के पीपीपी अनुबंध के तहत दे दिया गया. इस कंपनी को ICU या स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने का कोई अनुभव नहीं था, पर एक स्थानीय नगरसेवक से इसका संबंध बताया जाता है । पहले खरीदे गए सारे महंगे उपकरण हटा दिए गए, और नई सामग्री उस निजी एजेंसी के लिए खरीदी गई।

पीपीपी की शर्तें बेहद उदार थीं: अस्पताल की पहली मंज़िल मुफ्त में दी गई, बिजली-पानी मुफ्त, और नए उपकरण भी मुहैया कराये गये। बदले में एजेंसी को CGHS दरों से 1% कम पर ICU सेवा लोगों को देनी थी। लेकिन वास्तविकता में यह सेवा बहुत महँगी पड़ी—प्रवेश के लिए ₹40,000 से अधिक जमा कराना पड़ता है और प्रतिदिन ₹4000–₹5000 खर्च आता है। ICU में मौजूद मेडिकल स्टोर से दवाइयाँ MRP पर लेनी पड़ती हैं, जबकि अस्पताल परिसर में सस्ती दवाओं के लिए जन औषधि केंद्र भी है।

ICU में पुरे समय वाले विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं थे, बल्कि पार्ट टाइम या ऑन-कॉल डॉक्टर्स थे—जिनमें कई होम्योपैथ या आयुर्वेदिक चिकित्सक थे। ICU का प्रबंधन ऐसे व्यक्ति को दिया गया, जिसे इस प्रकार के काम का कोई अनुभव नहीं था, पर वह एक नगरसेवक से सम्बंधित था। ICU में महीने में औसतन सिर्फ 40 मरीज भर्ती किए जाते हैं । गंभीर मरीजों को शहर के बड़े अस्पताल में रेफर कर दिया जाता है —जो इस PPP के उद्देश्य को विफल करता है।

यह केस दर्शाता है कि जबकि PPP का उद्देश्य था कि गंभीर मरीजों के लिए ICU सुविधा उपलब्ध हो, वहीं यह निजी हितों और राजनीतिक पक्षपात का साधन बन गया। कंपनी को मुफ्त संसाधन देने के बावजूद यह सेवा महँगी, अयोग्य प्रबंधन और कमजोर देखभाल के कारण आम जनता की पहुँच से बाहर रही है।

केस स्टोरी 2: 50 करोड़ रुपये लागत का अस्पताल ट्रस्ट को दिया, पर लोगों को नगण्य सेवाएँ मिलीं

नवंबर 2022 में नगर निगम ने एक 28 वर्षीय पीपीपी अनुबंध के तहत हाल ही में बने मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल (मूल्य ₹50 करोड़) को एक हेल्थकेयर ट्रस्ट को सौंप दिया। 25,000 वर्गफुट क्षेत्र, मुफ्त किराया, मुफ्त यूटिलिटी सेवाएँ, टैक्स छूट और ज़्यादातर उपकरण भी मुफ्त दिए गए।

पाँच मंज़िलों वाले, 76-बेड वाले इस अस्पताल में ICU, कैथ लैब, डायलिसिस, CT स्कैन, OPD और इमरजेंसी सेवाओं अपेक्षित थीं। इसका उद्घाटन दो बार हुआ—पहली बार फरवरी 2022 में स्थानीय चुनावों से पहले, और दूसरी बार दिसंबर 2022 में। पर दो साल बाद भी ज़्यादातर सेवाएँ शुरू नहीं हुई थीं। ज़रूरी सुविधाएँ जैसे X-ray और जरूरी दवाइयाँ भी नहीं थीं। एक साँप काटने के मरीज की मृत्यु सिर्फ इसलिए हुई, क्योंकि वहाँ एंटी-स्नेक वेनम (सांप काटने पर दी जाने वाली दवाई) उपलब्ध नहीं थी।

यह अस्पताल सिर्फ दो पूर्णकालिक डॉक्टर और हर शिफ्ट में एक-दो नर्स के सहारे चलता रहा है। अधिकांश विशेषज्ञ डॉक्टर या तो अनुपलब्ध पाए गए, या सिर्फ पहले से अपॉइंटमेंट लेने पर आते हैं। अस्पताल का प्रशासक एक 12वीं पास व्यक्ति था, जो उसी नगरसेवक का रिश्तेदार था जिसने यह PPP आगे बढ़ाया था। CT स्कैन, पैथोलॉजी और डायलिसिस की सेवाओं को उस ट्रस्ट ने अन्य निजी एजेंसियों को आउटसोर्स कर दिया – जिससे जवाबदेही और कमज़ोर हो गई।

यहाँ औसत IPD में प्रति सप्ताह सिर्फ एक भर्ती, और प्रति दिन सिर्फ 4–5 ओपीडी मरीज आते रहे हैं। सेवा की गुणवत्ता अच्छी न होने और बार-बार रेफरल करने के कारण, स्थानीय लोग इस अस्पताल से दूरी बनाए हुए हैं । CGHS दरों से 4.5% कम शुल्क पर सेवाएं देना तय था, लेकिन जब सेवाएँ ही नहीं हैं तो शुल्क का कोई महत्व नहीं रह जाता। इस अस्पताल के कामकाज की समीक्षा सिर्फ सात साल में एक बार करना तय किया गया है। कई स्थानिक लोगों को अस्पताल का नाम तक नहीं पता था—उस समय तक जब कार्यकर्ताओं ने अस्पताल का बोर्ड लगाने की माँग की।

यह बेहद चिंताजनक है कि जहाँ शहर का एकमात्र बड़ा सरकारी अस्पताल मरीजों से भरा है, वहीं 50 करोड़ रुपये की लगत का नगर निगम अस्पताल पीपीपी के तहत लगभग बंद पड़ा है—यह सिर्फ क्षमता की कमी नहीं, बल्कि PPP मॉडल की पूरी विफलता है।

केस स्टोरी 3: डायग्नोस्टिक सेवाओं का पीपीपी – गरीब लोगों की पहुँच से दूर

जनवरी 2018 में नगर निगम ने एक निजी कंपनी के साथ 10 साल का पीपीपी करार किया। यह कंपनी एक देशव्यापी प्रयोगशालाओं का नेटवर्क है, जो सरकारी अनुबंधों के ज़रिये तेजी से फैली है। इस सौदे में एक सार्वजनिक मातृत्व अस्पताल की पूरी निचली मंजिल इस कंपनी को सिर्फ ₹1 सालाना किराए पर दे दिया गया। मुख्य नगर निगम अस्पताल अब इमारत के पिछले भाग से संचालित होता है। बिजली और पानी भी मुफ्त दिए जाते हैं।

कागजों पर यह केंद्र MRI, CT और पैथोलॉजी सेवाएँ CGHS दरों से 6% कम दरों पर उपलब्ध कराता है। वहाँ 64 कर्मचारी—डॉक्टर, तकनीशियन, प्रशासनिक और सफाई कर्मी—काम करते हैं, जिन्हें एजेंसी ने नियुक्त किया है। केंद्र में प्रतिदिन लगभग 400–600 पैथोलॉजी टेस्ट, 30 MRI और 15 CT स्कैन किए जाते हैं।

हालाँकि यह PPP दिखने में सफल लगता है, लेकिन इसमें कई खामियाँ हैं। दो वर्षों तक MRI और CT सेवाएँ शुरू ही नहीं हो पाईं, क्योंकि नगर निगम ने समय पर बिजली का काम नहीं करवाया। शिकायत निवारण प्रणाली सिर्फ कागजों तक सीमित रही है। MOU में तय होने के बावजूद रेट कार्ड प्रदर्शित नहीं किए गए—सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को कई महीनों तक इस बात के लिए पीछा करना पड़ा।

मध्यम वर्गीय लोगों को यह सेवा बाज़ार से कुछ सस्ती लगती है. लेकिन यह केंद्र किसी निजी क्लिनिक जैसा दिखता है, जिस कारण से कम आय वाले लोग वहाँ जाना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे इसे महँगा समझते हैं। गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को मुफ्त सेवा देने का वादा किया गया था, लेकिन अक्सर यह सेवा सिर्फ माँगने पर ही दी गयी है. अधिकांश महिलाएँ या तो इसके बारे में जानती नहीं हैं, या माँगने से डरती रही हैं।

इस PPP से भौतिक सुविधाओं में सुधार हुआ है, पर इसकी सेवाएं गरीबों को कम मिल पायी हैं, और इसकी जवाबदेही, पारदर्शिता में बड़ी कमी रही है।

केस स्टोरी 4: ICU के लिए विशेषज्ञ देने वाला पीपीपी – अयोग्य डॉक्टर और ICU में बड़ी संख्या में मौतें

2018 में नगर निगम ने एक चैरिटेबल ट्रस्ट के साथ ₹8.83 करोड़ का पीपीपी करार किया, जिसके तहत इस ट्रस्ट को छह नगर निगम अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टर और नर्स उपलब्ध कराने थे। यह दो साल का अनुबंध (मई 2018 – 2020) बाद में और आगे बढ़ाया गया। परंतु 2023 के बीच तक यह साझेदारी पूरी तरह विफल हो चुकी थी। नौ महीनों में ICU में 140 से अधिक मौतों के बाद जाँच में यह सामने आया कि ट्रस्ट ने अयोग्य डॉक्टर तैनात किये था—जैसे कि BAMS और BHMS डिग्रीधारी डॉक्टर, जिनमें से कुछ के पास वैध मेडिकल काउंसिल रजिस्ट्रेशन भी नहीं था। एक BHMS डॉक्टर ने एक पंजीकृत विशेषज्ञ के नाम से 32 मृत्यु प्रमाणपत्र जारी किए—जो कि सीधे तौर पर जालसाज़ी है। इसके चलते ट्रस्ट के पदाधिकारियों पर FIR दर्ज हुई और जून 2023 में अनुबंध को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया।

MOU की समीक्षा से पता चला कि उसमें कहीं भी स्टाफ की न्यूनतम योग्यता या आवश्यक कौशल का स्पष्ट उल्लेख नहीं था—यह एक बड़ी चूक को उजागर करता है। यह केस इस बात की ओर इशारा करता है कि पीपीपी स्वास्थ्य मॉडल में सख्त निगरानी, नियमित ऑडिट और योग्य गुणवत्ता मानकों की अत्यंत आवश्यकता है। स्टाफ की कमी को दूर करने के लिए आउटसोर्सिंग का सहारा लिया जाता है, लेकिन मरीज़ों की सुरक्षा कभी भी दाँव पर नहीं लगाई जानी चाहिए।

इस केस में बेहद कमजोर निगरानी और ठेके पर आधारित प्रबंधन के घातक नतीजे सामने आए—140 से अधिक ICU मौतें, अयोग्य स्टाफ और जाली रिकॉर्ड। यह गंभीर सवाल उठाता है कि पीपीपी के ज़रिये दी जा रही स्वास्थ्य सेवाएँ कितनी सुरक्षित हैं।

केस स्टोरी 5: करार का उल्लंघन, ठेका समाप्त करने के बाद उसी एजेंसी का दोबारा चयन!

2005 से 2015 तक नगर निगम ने एक निजी एजेंसी के साथ पीपीपी अनुबंध किया, जिसके तहत एक पूरा मातृत्व अस्पताल (1108.5 वर्ग मीटर) सिर्फ ₹1/माह की दर से लीज़ पर सौंपा गया था। पर यह अनुबंध निजी एजेंसी द्वारा गंभीर उल्लंघनों के चलते समाप्त कर दिया गया। MOU में यह स्पष्ट था कि अस्पताल में केवल मातृत्व सेवाएँ दी जाएँगी, लेकिन एजेंसी ने इसे एक मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल में बदल दिया—जहाँ ऑर्थोपेडिक्स, जनरल सर्जरी, ऑन्कोलॉजी और यहाँ तक कि कार्डियक सर्जरी तक की व्यवयसायिक सेवाएँ शुरू कर दी गईं। हाईकोर्ट को हस्तक्षेप कर सभी अनाधिकृत विभागों को बंद करवाना पड़ा। साथ ही एजेंसी ने इस पूरे समय के दौरान ₹21.86 लाख की संपत्ति कर और जल शुल्क भी नहीं चुकाया।

इसके बावजूद उसी एजेंसी को 2019 में एक नया करार देकर फिर से चुना गया—और यह करार 2034 तक वैध है। हैरानी की बात यह है कि इस बार नए करार में उन्हीं मल्टीस्पेशलिटी सेवाओं को मंजूरी दे दी गई, जिनके कारण पहले करार को समाप्त किया गया था—यह पीपीपी चयन प्रक्रिया की गंभीरता पर सवाल उठाता है।

MOU में यह प्रावधान था कि 30% बेड मुफ्त मातृत्व सेवाओं के लिए, 5% मुफ्त NICU बेड, और 40% बेड सरकारी बीमा योजना के तहत मरीजों के लिए आरक्षित होंगे। लेकिन अस्पताल में यह प्रावधान कहीं भी प्रदर्शित नहीं किये गए। रिपोर्ट्स के अनुसार, इन आरक्षित बेड्स पर शायद ही कभी किसी मरीज़ को भर्ती किया गया, और प्रशासक ने इस संबंध में कोई आँकड़ा देने या चर्चा करने से इनकार कर दिया। तकनीकी दस्तावेजों की समीक्षा में एक और गंभीर चूक सामने आई—सरकार द्वारा निगरानी करने के बजाय, अस्पताल में निगरानी समिति की ज़िम्मेदारी खुद उसी निजी एजेंसी पर छोड़ दी गई है!

यह केस बताता है कि जब पीपीपी की रुपरेखा और निगरानी दोनों में गंभीर खामियाँ हों, तो सार्वजनिक स्वास्थ्य गौण हो जाता है और निजी मुनाफा हाबी हो जाता है।

निष्कर्ष: PPP मायने सार्वजनिक संसाधनों पर कंपनियों का नियंत्रण, और जवाबदेही का अभाव

ये केस स्टोरीज़ महाराष्ट्र में नगर निगम स्तर पर अस्पतालों में लागू पीपीपी मॉडल की गहरी विफलताओं को उजागर करती हैं। एक मुख्य समस्या यह है कि नगर निगम को निर्णय लेने की पूरी स्वतंत्रता है, जबकि राज्य स्वास्थ्य विभाग की इन निर्णयों में कोई भागीदारी नहीं होती। इससे राजनीतिक हस्तक्षेप और कमज़ोर निगरानी को बढ़ावा मिलता है, खासकर जब नगर निगम स्तर पर क्षमता की भारी कमी हो।

चाहे पीपीपी किसी चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा संचालित हो, या लाभ कमाने वाली निजी कंपनी द्वारा—समस्याएँ एक जैसी रहीं हैं, जैसे की ICU में अयोग्य स्टाफ की तैनाती, निजी एजेंसियों द्वारा सेवाओं का दोबारा आउटसोर्सिंग, डायग्नोस्टिक केंद्रों तक गरीब मरीजों की पहुँच कम रहना, बार-बार नियमों का उल्लंघन करने वाली एजेंसियों के साथ फिर से करार करना, और PPP के तहत अस्पताल निष्क्रिय होना या राजनीतिक हितों के अधीन हो जाना।

इन सभी मामलों में सार्वजनिक संसाधनों को बहुत ही कम जवाबदेही के साथ निजी हाथों में सौंपा गया है —जिस जह से सबसे ज़रूरतमंद लोगों को अपेक्षित लाभ नहीं मिला। कई बार तो पीपीपी निजी लाभ का साधन बन गया, और सार्वजनिक हित को दरकिनार कर दिया गया।

कमज़ोर नियमन, राजनीतिक हस्तक्षेप, और निजी हितों का हाबी होना —इन सबने मिलकर इन साझेदारियों के सार्वजनिक लक्ष्य को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। अगर पीपीपी के दौरान पूरी पारदर्शिता, कमज़ोर वर्गों के लिए न्याय, और मरीजों के प्रति जवाबदेही नहीं रहेगी, तो ये मॉडल जनहित के बजाय मुनाफा कमाने और राजनीतिक फायदे के लिए ही चलते रहेंगे।


(यह ब्लॉग साथी संस्था द्वारा किए गए एक अध्ययन पर आधारित है। अध्ययन टीम में शामिल थे: श्वेता माराठे, दीपाली यक्कुंडी, अभिजीत मोरे और धनंजय काकडे। इस अध्ययन पर आधारित एक हाल ही में प्रकाशित शोध पत्र यहाँ देखा जा सकता है:
Marathe S, Yakkundi D, More A, Kakade D. Unpacking the politics and publicness of healthcare public-private partnerships: case studies from municipal hospitals in Maharashtra state, India. J Community Syst Health [Internet]. 2025 Jul. 23 [cited 2025 Jul. 30];2(1). Available from: https://journals.ub.umu.se/index.php/jcsh/article/view/1182)

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