- मित्रांशु गामीत
दक्षिण गुजरात के आदिवासी बहुल जिले तापी के व्यारा कस्बे में, आज एक अलग तरह की लड़ाई लड़ी जा रही है। व्यारा ज़िला अस्पताल को निजी हाथों में सौंप कर मेडिकल कॉलेज चलाने के प्रस्ताव ने इस जिले की जनता को झकझोर कर रख दिया है। यह सिर्फ़ एक फैसले का विरोध नहीं है, बल्कि उस निति का विरोध है जो सार्वजनिक स्वास्थ्य पर नहीं, बल्कि मुनाफ़े पर आधारित है। इसके पीछे यह विश्वास है कि हर किसी को सस्ता और अच्छा इलाज अधिकार के तौर पर मिलना चाहिए। यह संघर्ष सिर्फ एक अस्पताल की कहानी नहीं है, बल्कि यह सवाल उठा रहा है कि आखिर हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था है किसके लिए– जनता के लिए या प्राइवेट कम्पनियों के लिए ?

तापी की जीवन धारा: सिर्फ एक अस्पताल नहीं, एक सहारा
व्यारा अस्पताल सिर्फ तीन सौ बिस्तरों वाली एक इमारत नहीं है। यह केवल व्यारा के लोगों के लिए नहीं, बल्कि पूरे तापी ज़िले के लिए नोडल अस्पताल है। पास के आदिवासी-बहुल जिलों जैसे दांग और नंदुरबार जिले (महाराष्ट्र) के कई गावों की जनता भी इस अस्पताल पर निर्भर है, जब बड़े ऑपरेशन या रेफरल का सवाल हो। यही वजह है कि इस अस्पताल की सार्वजनिक भूमिका बहुत अहम है।
गुजरात सरकार ने प्रस्ताव दिया है कि अस्पताल की देखभाल और संचालन ‘Torrent’ नाम की दवा कंपनी से जुड़े निजी ट्रस्ट को सौंपा जायेगा। निजी ट्रस्ट के हाथों मेडिकल कॉलेज का निर्माण होगा, जिससे सरकारी ज़मीन और संपत्तियों का इस्तेमाल निजी शिक्षा और लाभ कमाने के लिए होने की संभावना है। यह बदलाव जनता के लिए नुक्सान का सौदा है: मुफ्त इलाज ख़त्म हो सकता है, फीस बढ़ सकती है, गरीब-आदिवासीों का अस्पताल उनकी पहुँच से बाहर हो सकता है।

आदिवासी जनता ने उठाई आवाज़
सरकार का दावा है कि इस निजीकरण से अस्पताल की हालत सुधरेगी और विशेष डॉक्टर आएंगे। पर व्यारा के लोगों को लगा कि यह ‘इलाज’ शायद बीमारी से भी बुरा साबित होगा। शुरुआत में छोटी-छोटी सभाएं हुईं, जो जल्द ही बड़े विरोध प्रदर्शनों में बदल गईं। संगठित होकर लोगों ने लगातार विरोध जताना शुरू किया।

जन जागरण के लिए यात्रा – सितम्बर 2023 में पुरे तापी जिले में गाँव – गाँव में यात्रा निकाली गयी. इस यात्रा के माध्यम से तापी जिले के करीब १५० गावों के लोगों को संघर्ष में शामिल होने के लिए संपर्क किया गया, और बड़े स्तर पर लोगों का समर्थन मिलने लगा. व्यारा की सड़कों पर जिला मुख्यालय के बाहर धरने, “हमारा अस्पताल हमारे हाथ में” जैसे नारों वाले बैनरों के साथ जुलूस, और अधिकारियों को अपनी मांगों वाले पत्र देने का सिलसिला चल पड़ा। मीडिया कवरेज, यूट्यूब वीडियो और सोशल मीडिया पर चर्चा ने व्यारा आंदोलन को ज़िला से बाहर राज्य स्तर तक पहुंचा दिया।

६० दिन का धरना और अनशन – मार्च 2025 की शुरुआत से व्यारा सिविल अस्पताल को निजी हाथों में देने के खिलाफ आदिवासी समाज ने बड़ा आंदोलन छेड़ दिया। अस्पताल परिसर में आदिवासी कार्यकर्ताओं और लोगों ने अनिश्चितकालीन धरना शुरू किया, लोग लगातार भूख हड़ताल पर बैठने लगे, और लिखित आश्वासन माँगा कि यह अस्पताल किसी भी कंपनी को नहीं सौंपा जाएगा। यह व्यापक आन्दोलन मई 2025 की शुरुवात तक चला. स्थानीय अखबारों ने लगातार इन आंदोलनों को जगह दी। कभी धरना, कभी रैली, तो कभी कलेक्टर को ज्ञापन सौंपने जैसी गतिविधियों के ज़रिए आदिवासी समाज ने अपनी ताक़त दिखाई है। तापी ज़िले के अलग-अलग गाँवों और तालुकों से बड़ी संख्या में लोग आकर व्यारा में जुटे, नारेबाज़ी की और “सरकारी अस्पताल बचाओ” का संदेश दिया।

इस आन्दोलन का समन्वय ‘संविधान स्वाभिमान संसाधन एवं राष्ट्रिय संप्रभुता सुरक्षा अभियान समिति’ के द्वारा हो रहा है,और यह समिति आज लोगों की आवाज बन गई है।
संघर्ष का असली मुद्दा: स्वास्थ्य अधिकार है या व्यापार?
सरकार और अधिकारियों ने इस निजी साझेदारी को जरूरी बताते हुए दावा किया है कि गरीबों का इलाज मुफ्त रहेगा और सेवाएं बेहतर होंगी, और सरकार के पैसे पर भी ज्यादा बोझ नहीं पड़ेगा। पर व्यारा के लोगों को इन वादों पर भरोसा नहीं हुआ। अपनी आपबीती और दूसरी जगहों के अनुभवों पर आधारित उनकी यह शंकाएं हैं –
- व्यारा अस्पताल के निजीकरण के विरोध का एक बड़ा कारण यह है कि सरकार इसे Self-financed मेडिकल कॉलेज (GMERS) में बदलने की योजना बना रही है। इसका मतलब है कि अस्पताल के मरीजों को अब शिक्षण अस्पताल की सेवाओं के लिए अधिक फीस देनी पड़ सकती है, और डॉक्टर-छात्रों के प्रशिक्षण के लिए अस्पताल का संचालन व्यावसायिक तरीके से किया जा सकता है। लोग इस बदलाव से स्वास्थ्य सेवाओं का बाजारीकरण होने के बारे में चिंतित हैं।
उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि इलाज महंगा हो जाएगा। क्या डॉक्टर से दिखाना अब भी मुफ्त रहेगा? क्या जान बचाने वाली दवाएं और जांचें महंगी हो जाएंगी? गरीब परिवारों के लिए, थोड़ी सी भी फीस इलाज न करा पाने का कारण बन सकती है।
- जिम्मेदारी किसकी रहेगी ? एक सरकारी अस्पताल जनता के प्रति जवाबदेह होता है, जबकि एक निजी कंपनी का लक्ष्य पैसा कमाना होता है। लोगों का सवाल था, “क्या यह कंपनी हमारे स्वास्थ्य के लिए काम करेगी, या अपने मुनाफे की परवाह करेगी?” उन्हें डर है कि ज्यादा पैसा देने वाले मरीजों पर ही ध्यान दिया जाएगा, और सामान्य जनता को नजरअंदाज किया जाएगा।
- कर्मचारियों का भविष्य: उन डॉक्टर्स, नर्सों, सफाई कर्मचारियों और दूसरे स्टाफ का क्या होगा जो सालों से यहाँ काम कर रहे हैं? क्या उनकी नौकरी चली जाएगी? क्या उन्हें कम वेतन पर काम करने को मजबूर किया जाएगा?
- गुजरात के अन्य PPP मॉडल के चिंताजनक अनुभव – इसके अलावा, गुजरात में पहले हुए अन्य पीपीपी (सार्वजनिक-निजी भागीदारी) अस्पताल सौदों के अनुभव भी लोगों की चिंता को बढ़ाते हैं। व्यारा अस्पताल गुजरात में हाल के बड़े तीन पीपीपी (सार्वजनिक–निजी भागीदारी) प्रयासों में से एक माना जा रहा है, जिनमें बड़े निजी समूह शामिल हैं। पहले गुजरात में हुए अन्य अस्पताल पीपीपी मामलों में भी अलग-अलग बड़े निजी समूहों ने भाग लिया है, जैसे भुज (अदानी समूह) और दाहोद (ज़ाइडस समूह या Zydus group) के अस्पताल सौदों में हुआ है। इन पहले के अनुभवों को देखकर स्थानीय लोग चिंतित हैं कि व्यारा अस्पताल में भी सरकारी अस्पताल का स्वरूप बदल सकता है,और जनता की पहुँच सीमित हो सकती है।बड़े निजी कंपनियों को सौंपे गए अस्पतालों में अक्सर इलाज की लागत बढ़ने, फीस अधिक होने और प्रबंधन में गड़बड़ियों की शिकायतें सामने आई हैं। आंदोलन के समर्थक इन घटनाओं को चेतावनी के तौर पर देखते हैं, और चाहते हैं कि व्यारा अस्पताल पूरी तरह सरकारी रहे और जनता के लिए बिनदिक्कत मुहैय्या रहे।

व्यारा के लोग विकास या अच्छी सुविधाओं के खिलाफ नहीं हैं। पर वे यह मांग कर रहे हैं कि सरकारी व्यवस्था को ही मजबूत किया जाए —ज्यादा डॉक्टर नियुक्त करें, अस्पतालों का स्तर सुधारें और उनका प्रबंधन बेहतर करें—न कि सरकार अपनी जिम्मेदारी निजी कंपनियों पर डाल दे। उनकी यह लड़ाई एक जरूरी याद दिलाती है कि सार्वजनिक अस्पताल कोई दुकान नहीं है। यह एक सामाजिक जरूरत है, एक शरण की जगह है, और हर इंसान का अधिकार है।

व्यारा आंदोलन के उल्लेखनीय अनुभव
इस आंदोलन ने अनेक रणनीतियां अपनाई हैं जो ध्यान देने लायक हैं:
- लगातार धरना और अनशन: जब लोगों को पता चला कि बिना जनता की राय लिए निर्णय हो रहा है, तो गांवों से लोग अस्पताल के बाहर आने लगे, हर दिन, अपनी आवाज़ उठाने के लिए। मार्च से मई २०२५ के दौरान ६० दिन का लगातार धरना और अनशन बताता है कि जब मुद्दा गंभीर हो, तो तमाम दिक्कतों के बावजूद जनता थक कर नहीं रुकती।
- महिलाओं की बड़ी भागीदारी: इन आंदोलनों में महिलाएँ विशेष रूप से सक्रिय रही हैं। प्रसव, बीमारों की ज़रूरतें और बच्चा-चिकित्सा से जुड़े अनुभव महिला-परिवारों के लिए बेहद संवेदनशील होते हैं, इन्हें ध्यान में रखते हुए अस्पताल तक सबकी पहुँच बनी रहनी चाहिए।
- आदिवासी समाज की एकता : आदिवासी समाज की एकता और उनका सरकारी अस्पताल के साथ लगाव ही इस आंदोलन की आत्मा है। ज्यादा खर्च की आशंका, दूर-दराज के गाँवों के आदिवासी लोगों की उपेक्षा की संभावना, और निजी प्रबंधन का डर — ये अनुभव कहते हैं कि ऐसा बदलाव जनता के हितों के खिलाफ होगा।
- राष्ट्रीय समर्थन: NAPM (जन आंदोलनों का राष्ट्रिय समन्वय), सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, मानवाधिकार समूह और स्वास्थ्य विशेषज्ञ – इन सभी ने अपीलें भेजीं, खुला पत्र लिखा, ई-मेल अभियान चलाए। इसने आंदोलन को सिर्फ़ स्थानीय मुद्दा न रखते हुए, व्यापक स्तर पर सोचने वाला मामला बना दिया।
व्यारा के लोगों के हौसले ने राष्ट्रिय सामाजिक संगठनों का ध्यान खींचा है। नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर और दूसरे अनुभवी कार्यकर्ता इस संघर्ष में जुड़ गए। इस मुद्दे को गुजरात विधानसभा में भी उठाया गया, जिससे सरकार को जनता की नाराजगी को स्वीकार करना पड़ा। आज व्यारा के लोगों के लगातार दबाव ने सरकार को अपनी योजना पर कुछ हद तक रोक लगाने को मजबूर कर दिया है, अस्पताल निजी हाथों में देने का काम आगे नहीं बढ़ा है। हाल में ही जुलाई में व्यारा के आंदोलनकारियों की गुजरात के मुख्यमंत्री से बैठक हुई। इस बैठक में मुख्यमंत्री की ओर से ऐसी प्रतिक्रिया की खबर है – “पूरे गुजरात में लोगों को निजीकरण से कोई समस्या नहीं है, तो आप लोग विरोध क्यों कर रहे हैं? आप चाहे जो करें, यह सौदा नहीं रुकेगा।”
इस हालत मैं, समिति अब सरकार की हर गतिविधि पर नजर रखे हुए है। संघर्ष अब एक नए मोड़ पर है। लोगों ने दिखा दिया है कि वे हार नहीं मानेंगे, और सरकार को सन्देश मिला है कि निजीकरण की कोई भी नई कोशिश होने पर उसे जनता के जोरदार विरोध से टकराना पड़ेगा।
क्या गुजरात सरकार का हो चुका है निजीकरण?
व्यारा की लड़ाई एक बहुत व्यापक नीति से जुड़ी है । यह है PPP (Public-Private Partnership) मॉडल और निजी व कॉर्पोरेट संस्थाओं को सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएँ सौंपने की निति। गुजरात में पिछले कुछ वर्षों में कई अस्पतालों और सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों को इसी तरह के मॉडल में सौंपने की योजना बनी है, ताकि राज्य की खर्च की ज़िम्मेदारियाँ कम हों, और निजी पूंजी आकर मुनाफा कमा सके ।
लेकिन इस नीति के कई नुकसान हैं। पहला, स्वास्थ्य जो कि एक अधिकार है, वह बाजारू वस्तु बनने लगता है, जहाँ पैसे और मुनाफा अहम हो जाते हैं। दूसरा, जब मुफ्त इलाज सीमित हों, तो गरीब और आदिवासी को सबसे ज़्यादा मुश्किल होती है। तीसरा, निजी मैनेजमेंट अक्सर पारदर्शी नहीं रहता, कर्मचारियों के वेतन-शर्तें कमज़ोर हो जाती हैं. अस्पताल की प्राथमिकता बदल जाती है: मरीज नहीं बल्कि मैनेजमेंट का मुनाफा ज़्यादा मायने रखती है।

इस संघर्ष का अब वारा – न्यारा होना चाहिए जनता के पक्ष में !
आदिवासी इलाकों जैसे तापी, दांग, नर्मदा और आसपास के जिलों में स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी पहले से ही संकट में है। कुपोषण, बीमारी और दूर दराज़ अस्पतालों तक पहुँच की समस्याएँ – ये सब पहले से हैं। इस स्थिति मैं, व्यारा के लोग सिर्फ़ अपनी ज़रूरतें बचाने की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं; यह सरकार की स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकारण की निति पर बुनियादी सवाल उठा रहे हैं. अब इस संघर्ष का फैसला जनता के हित में होना चाहिए, और यह सारे कदम उठाने ज़रूरी हैं:
- सरकार की स्वास्थ्य सेवाएँ सार्वजनिक हाथों में ही रहनी चाहिए: निजीकरण की योजना को स्थायी रूप से वापस लेना चाहिए।
- स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ा कोई भी निर्णय लेते समय जनपरामर्श हो, विशेषकर आदिवासी समुदायों की सहमति और Fifth Schedule की कानूनी सुरक्षा लागू हो।
- सार्वजनिक अस्पतालों को मजबूत करना चाहिए — डॉक्टर व स्टाफ़ बढ़ाएँ, उपकरण बेहतर हों, मुफ्त व् पर्याप्त दवाइयाँ, मुफ़्त इलाज की सुविधा बनी रहे।
- सामाजिक आंदोलनों, मीडिया और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को लगातार इस मुद्दे पर काम करना चाहिए, ताकि सरकार को सार्वजनिक जवाबदेही निभानी पड़े।


व्यारा की आवाज़, पूरे देश का मुद्दा
व्यारा अस्पताल को निजीकरण से बचाने का संघर्ष अब फिर से ज़ोर पकड़ रहा है क्योंकि सरकार हाल ही में अस्पताल के कुछ हिस्सों को निजी एजेंसी को सौंपने की कोशिश कर रही है। इस आंदोलन के नेताओं ने इस आंदोलन को समर्थन देने के लिए राष्ट्रीय एकजुटता और समर्थन की अपील की है, क्योंकि यह देश भर के लोगों को प्रभावित करने वाला एक गंभीर मुद्दा है।
भारत में स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं के निजीकरण की आक्रामक नीति अब तक गुजरात में सबसे मज़बूत रही है। ऐसी स्थिति में व्यारा के निजीकरण-विरोधी संघर्ष की जीत पूरे भारत में स्वास्थ्य आंदोलनों के लिए एक निर्णायक कदम होगी, जो यह दर्शाएगी कि निजीकरण को जनशक्ति से परास्त किया जा सकता है। इसलिए आज हम सभी को व्यारा अस्पताल को बचाने के संघर्ष को सक्रिय रूप से समर्थन देने का समय आ चुका है ।

(लेख का संपादन अभय शुक्ला ने किया है)