- अनाम और दीपक जाधव
महाराष्ट्र के विवादास्पद एम्बुलेंस पीपीपी के बारे में कुछ मुख्य बातें
- ज़्यादा खर्च: महाराष्ट्र की एम्बुलेंस सेवा को 2025 में निजी कंपनियों को पीपीपी द्वारा सौंपा गया है, इसकी लागत औसतन 3.5 लाख रुपये प्रति एम्बुलेंस प्रति महीना होगी। यह खर्च आंध्र प्रदेश और कर्नाटक से लगभग डेढ़ गुना ज़्यादा है। इसलिए सरकार द्वारा नाजायज खर्च और कंपनियों द्वारा मुनाफाखोरी के बारे में गंभीर सवाल उठ रहे हैं ।
- टेंडर में गड़बड़ी: मुख्य टेंडर दस्तावेज़ सरकारी दफ़्तर से नहीं, बल्कि शामिल कंपनियों में से एक के दफ़्तर से तैयार किए गए थे। शर्तें ऐसी रखी गईं कि बाकी सभी प्रतियोगियों को बाहर कर दिया गया, और केवल एक गठबंधन बोलीदाता के रूप में बचा। सुमीत कंपनी एक ही समय में सरकार की सलाहकार भी थी, और बोलीदाता भी — यह गंभीर हितों का टकराव दिखाता है। काम का आदेश पहले ही जारी कर दिया गया, जब की गठबंधन का औपचारिक रजिस्ट्रेशन भी नहीं हुआ था।
- संदिग्ध ठेकेदार: सुमीत फ़ैसिलिटी अन्य राज्यों में विवादों से घिरा है और महाराष्ट्र में राजनीतिक संरक्षण से जुड़ा है। BVG इंडिया पर हाई कोर्ट ने फॉरेंसिक ऑडिट का आदेश दिया था (जो कभी पूरा नहीं हुआ), फिर भी इस कंपनी को नया ठेका दे दिया गया।
- सेवा की खराब गुणवत्ता:फिलहाल चालूपीपीपी के तहत एम्बुलेंस अक्सर मरीजों तक पहले एक घंटे में नहीं पहुँच पातीं। कई जिलों में 80–120 मिनट तक का समय लगने का अनुभव है। ग्रामीण/आदिवासी क्षेत्रों में एम्बुलेंस समय पर न पहुँचने से मौतों की घटनाएँ सामने आई हैं।
- एम्बुलेंस स्टाफ का शोषण: कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले ड्राइवरों को लंबे घंटे, कम वेतन, खराब कामकाज की स्थिति और असुरक्षित गाड़ियाँ झेलनी पड़ती हैं। वे बार-बार प्रदर्शन करके उचित वेतन और मानवीय ड्यूटी समय की मांग कर चुके हैं।
नीति संबंधी सुझाव
- मौजूदा PPP करार रद्द किया जाए और कर्नाटक के उदाहरण का पालन करते हुए एम्बुलेंस सेवाएँ सीधे महाराष्ट्र सरकार द्वारा चलाई जाएँ।
- टेंडर प्रक्रिया, वित्तीय गड़बड़ियों और राजनीतिक संबंधों की स्वतंत्र जाँच कराई जाए, और संदिग्ध कंपनियों को भविष्य की सरकारी निविदाओं से प्रतिबंधित किया जाए।
- सेवा मानक लागू किए जाएँ — मरीज को लेने और पहुँचाने का समय (क्षेत्र के अनुसार 15–30 मिनट) सख़्ती से तय किया जाए। स्टाफ़ कल्याण सुनिश्चित हो: उचित वेतन, नियमित काम का समय, और काम की सुरक्षा अनिवार्य की जाए।
संक्षेप में – एम्बुलेंस जैसी ज़िंदगी बचाने वाली अहम सेवाओंको मुनाफ़ाखोर ठेकेदारों के हाथों नहीं दिया जाना चाहिए। इन्हें सीधे सार्वजनिक व्यवस्था के द्वारा चलाना चाहिए ताकि खर्च वाजिब रहे, जवाबदेही निश्चित हो, और मरीजों व कर्मचारियों – दोनों की भलाई और सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।

एम्बुलेंस संकट की घड़ी में लोगों के लिए जीवनरेखा होती हैं। राज्य का यह कर्तव्य है की आपातकालीन एम्बुलेंस सेवाओं के माध्यम से लोगों की जान की रक्षा की जाए। लेकिन महाराष्ट्र में राज्य सरकार इस ज़रूरी सेवा को बड़े पैमाने पर संदिग्ध ‘पब्लिक–प्राइवेट पार्टनरशिप’ (पीपीपी) के ज़रिये निजी कंपनियों को सौंप रही है। नतीजा यह है कि जो सेवाएँ लोगों की जीवनरेखा होनी चाहिए थीं, वे निजी कंपनियों की मुनाफ़ा रेखा बन गई हैं। इस लेख में हम बताते हैं कि महाराष्ट्र सरकार ने किस तरह एक बड़े एम्बुलेंस ठेके में प्रवेश किया है, जहाँ मुनाफ़ा मरीजों के हित से ऊपर रखा जा रहा है, और ऐसा संदेह है की भ्रष्टाचार की वजह से जनता और कर्मचारियों को नुक्सान हो रहा है।
महाराष्ट्र का लोक स्वास्थ्य विभाग के तहत ‘महाराष्ट्र इमर्जेंसी मेडिकल सर्विसेज’ (MEMS) प्रोजेक्ट पूरे राज्य में तैनात लगभग 1000 एम्बुलेंस के जरिए चला रहा है। इन एम्बुलेंस को बेसिक या एडवांस्ड लाइफ सपोर्ट देने, 24×7 चलने, और ‘सुवर्ण काल’ (Golden hour) के भीतर मरीजों को नजदीकी अस्पताल पहुँचाने का लक्ष्य है। कोई भी मरीज गंभीर हालत में 108 डायल करके यह सेवा मुफ्त में ले सकता है।
यह महत्वपूर्ण सेवा महाराष्ट्र में एक सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल के जरिए चलाई जा रही है। 2014 से 2019 तक, 937 एम्बुलेंस चलाने का ठेका BVG इंडिया को दिया गया था, जिसके लिए राज्य सरकार BVG को सालाना 300 करोड़ रुपये देती थी। एम्बुलेंस महाराष्ट्र सरकार की थीं, लेकिन BVG उनके चलाने के खर्च और वेतन के लिए जिम्मेदार थी; इस ठेके को 2019 से 2024 तक बढ़ा दिया गया। पिछले साल एक नया टेंडर निकाला गया, और 2025 में यह ठेका BVG इंडिया, सुमीत फैसिलिटी, और SSG ट्रांसपोर्ट सैनिटारिया नाम की कंपनियों को को संयुक्त रूप से दिया गया है, जिससे कई सवाल और विवाद खड़े हो गए हैं।
महाराष्ट्र में पीपीपी के तहत एम्बुलेंस पर खर्च — क्या दूसरे राज्यों से ज्यादा है?
इस दस साल के ठेके में राज्य में 108 एम्बुलेंस सेवा का विस्तार और सुधार करने के प्रावधान हैं। पर सामाजिक कार्यकर्ताओं, सूचना के अधिकार के कार्यकर्ताओं, और विपक्षी नेताओं ने सरकार पर इस डील में राजनीतिक हस्तक्षेप और बड़े पैमाने पर अनियमितताओं का आरोप लगाया है। महाराष्ट्र के इस सौदे की लागत और अन्य संबंधित मुद्दों ने कई सवाल खड़े किए हैं, जिनसे जुड़े तथ्य ऐसे हैं –
- एम्बुलेंस और उपकरण खरीदने का खर्च लगभग 580 करोड़ रुपये आँका गया है।
- संचालन और रखरखाव का खर्च पहले ही साल में 700 करोड़ रुपये होगा और हर साल 8% बढ़ेगा।
- कुल मिलाकर 1756 एम्बुलेंस के लिए यह ठेका 10,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का हो सकता है।
- महाराष्ट्र में प्रति एम्बुलेंस औसत खर्च 3.5 लाख रुपये प्रति महीने आँका गया है।
अगर हम इसकी तुलना आंध्र प्रदेश से करें, वहां साल 2023 और 2024 में प्रति एम्बुलेंस हर महीने संचालन लागत का अनुमान लगभग 2.05 लाख रुपये से 2.13 लाख रुपये के बीच है, जो साल-दर-साल थोड़ा बदलता है। कर्नाटक के मामले में, 2025 में कर्नाटक सरकार ने अपना पीपीपी ठेका रद्द कर दिया और एम्बुलेंस सेवा सरकार द्वारा खुद चलाने का फैसला किया, ताकि काफी लागत बचाई जा सके और कर्मचारियों की भलाई सुनिश्चित हो सके। उपलब्ध स्रोतों के मुताबिक कर्नाटक में प्रति एम्बुलेंस प्रति महीने का अनुमानित खर्च लगभग 2.1 लाख रुपये है।
महाराष्ट्र में एक एम्बुलेंस का अनुमानित मासिक खर्च (3.5 लाख रुपये) इन राज्यों की तुलना में काफ़ी ज़्यादा लगता है – लगभग डेढ़ गुना अधिक।इससे एम्बुलेंस सेवाओं के लिए शुरू किए गए नए पीपीपी के तहत इस ज्यादा खर्च के औचित्य पर बड़े सवाल उठते हैं।
टेंडर प्रक्रिया – दाल में काला है
नए MEMS ठेके में बजट का ज्यादा होना ही चिंता का विषय नहीं है, बल्कि टेंडर प्रक्रिया में गंभीर अनियमितताएँ भी पाई गई हैं, जिससे भ्रष्टाचार का शक पैदा होता है। निम्नलिखित बातें इसकी पुष्टि करती हैं:
- टेंडर दस्तावेज तैयार करने में धोखाधड़ी: एक साइबर फोरेंसिक रिपोर्ट से पता चला है कि मुख्य टेंडर दस्तावेज सरकारी अधिकारियों द्वारा नहीं, बल्कि सुमीत फैसिलिटीज (एम्बुलेंस ठेकेदारों में से एक) के पिंपरी कार्यालय में तैयार किए गए थे। इन्हें एक निजी व्यक्ति द्वारा अपलोड किया गया ,था जिसके पास कोई आधिकारिक पद नहीं था।
- प्रतिस्पर्धी कंपनियों को बाहर रखना: आरोप है कि टेंडर दस्तावेजों को BVG-सुमीत समूह को फायदा पहुँचाने के लिए तैयार किया गया था। शुरू में 30 से ज्यादा कंपनियों ने बोली लगाने में दिलचस्पी दिखाई थी, लेकिन टेंडर में रखी गई विस्तृत शर्तों की वजह से बाकी सभी कंपनियाँ मानदंडों पर खरी नहीं उतर सकीं। इससे सारी प्रतिस्पर्धा खत्म हो गई और BVG-सुमीत एकमात्र बोलीदार बचा।
- हितों का टकराव(Conflict of interest): सुमीत फैसिलिटीज सरकार की सलाहकार (government advisor) भी है, और इसलिए कानूनी तौर पर टेंडर प्रक्रिया में भाग लेने से प्रतिबंधित है। इसके बावजूद, कंपनी को यह ठेका दिया गया, जो हितों के टकराव के मानदंडों का साफ उल्लंघन है।
- झूठे दावे और अमान्य प्रक्रियाएँ: यह दावा किया गया कि टेंडर को 13 मार्च, 2024 की कैबिनेट बैठक में मंजूरी मिल गई थी, लेकिन प्रस्ताव वास्तव में मंजूरी की सूची में था ही नहीं । फिर भी 15 मार्च, 2024 को एक वर्क ऑर्डर जारी कर दिया गया। इसके अलावा, ऑर्डर पाने वाला समूह (consortium) आधिकारिक तौर पर अप्रैल 2024 में पंजीकृत हुआ, यानी ठेका मिलने के लगभग एक महीने बाद।
- ठेकेदारों का संदेहजनक इतिहास –
- सुमीत फैसिलिटी का संदेहजनक रिकॉर्ड: सुमीत फैसिलिटी के पार्टनर अमित सालुंखे को हाल ही में झारखंड के एक शराब घोटाले में गिरफ्तार किया गया था। छत्तीसगढ़ में भी कंपनी के खिलाफ कार्रवाई हुई थी, लेकिन फिर भी उसे महाराष्ट्र का टेंडर दिया गया। बताया जाता है कि सालुंखे महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के बेटे श्रीकांत शिंदे के करीबी सहयोगी हैं।
- BVG इंडिया पर गंभीर आरोप: BVG इंडिया लिमिटेड ने 2014 और 2019 के बीच महाराष्ट्र में राज्य स्तरीय एम्बुलेंस का ठेका संभाला था, लेकिन उसे 2024 तक बिना किसी औपचारिक extension प्रक्रिया के परिचालन जारी रखने की अनुमति दी गई। उन दस सालों में, प्राप्त सरकारी पैसे का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा गया। हाई कोर्ट ने BVG इंडिया लिमिटेड का फोरेंसिक ऑडिट करने का आदेश दिया था, और सरकार ने कोर्ट में वादा किया था कि ऑडिट के नतीजे आने तक कंपनी को भविष्य के टेंडरों में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी। यह वादा करने के बावजूद, फोरेंसिक ऑडिट कभी नहीं किया गया,और तब भी कंपनी को नए टेंडर में भाग लेने की अनुमति दे दी गई।
एम्बुलेंस सेवाओं के पीपीपी मॉडल से जुड़ी गंभीर समस्याएं
देर से पहुँचने वाली सेवाएँ, जिनपर भरोसा नहीं किया जा सकता
मरीजों और आम लोगों के पिछले अनुभवों से पता चलता है कि महाराष्ट्र में 108 एम्बुलेंस द्वारा दी जा रही सेवाओं की गुणवत्ता कम है, भले ही सरकार पर इसकी लागत ज्यादा है। पहले घंटे के भीतर अस्पताल पहुँचना एक सपना ही लगता है, क्योंकि एम्बुलेंस अक्सर उस अहम समय सीमा के भीतर मरीज को ले जाने में विफल रहती हैं। MEMS पर हुए एक हाल के अध्ययन के मुताबिक, ज़्यादातर जिलों में एम्बुलेंस का मरीज़ तक पहुँचना और फिर उसे सही जगह ले जाना, इसके लिए एक घंटे से ज़्यादा वक्त लेता है। जिलों के भीतर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक मरीज़ को ले जाने में आमतौर पर 80 से 120 मिनट का समय लगता है। (Analyzing the Maharashtra Ambulance Service “108”: The Prospect and Challenges, 2024)
ग्रामीण इलाकों में जहाँ सेवाएँ बेहद जरूरी हैं, देरी से पहुँचने की शिकायतें अक्सर आती हैं। पालघर जैसे आदिवासी बहुल इलाकों में, एम्बुलेंस के समय पर न पहुँचने की वजह से महिलाओं की मौत हो गई है। नासिक, पुणे, परभणी, सोलापुर और छत्रपति संभाजीनगर से मीडिया में ऐसी घटनाएँ सामने आई हैं जहाँ 108 एम्बुलेंस के दुर्घटनास्थल पर बहुत देर से पहुँचने के कारण मरीजों की हालत गंभीर हो गई। सिंधुदुर्ग और पालघर जिलों से देरी से एम्बुलेंस आने, और यहाँ तक कि एम्बुलेंस में आग लगने से मरीजों के मृत्यु की घटनाएँ सामने आई हैं।
शहरी इलाकों में, 108 एम्बुलेंस का उपयोग कम होता है क्योंकि आमतौर पर निजी वाहन से ज्यादा तेजी से अस्पताल पहुँचा जा सकता है।
“108 एम्बुलेंस के लिए कॉल करने पर, कॉल सेंटर के द्वारा ड्राइवर को बुलाया जाता है। अक्सर ड्राइवर उपलब्ध नहीं होता। वे कहते हैं कि वाहन किसी दूसरी कॉल पर चला गया है,और वे घटनास्थल से दूर हैं। इसलिए, शहर में आपातकाल में आम तौर पर लोग भी 108 एम्बुलेंस का इंतजार नहीं करते । मरीज को किसी भी अन्य उपलब्ध वाहन से अस्पताल ले जाया जाता है। नतीजतन, शहर में इस सेवा का इस्तेमाल बहुत सीमित है।“ – सोलापुर का एक निवासी
ठेके पर काम करने वाले ड्राइवरों का शोषण
इन 108 एम्बुलेंस के ठेके पर काम करने वाले ड्राइवर अपने काम करने की स्थितियों, और एम्बुलेंस की पुरानी हालत से काफी नाखुश हैं। ड्राइवरों ने बेहतर काम करने की स्थिति और पर्याप्त मजदूरी की मांग को लेकर बार-बार विरोध प्रदर्शन किए हैं, जिससे सेवाएँ बाधित हुई हैं।
“कई जिलों में, खासकर ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में, 108 वाले एम्बुलेंस पुरानी और खराब हालत में हैं। इन वाहनों के दरवाजे ठीक से बंद नहीं होते, चेसिस (ढाँचे) में जंग लगा हुआ है और जरूरी मेडिकल उपकरण (जैसे ऑक्सीजन सिलिंडर, स्ट्रेचर) खराब हैं। पुरानी और खराब रखरखाव होने के कारण, एम्बुलेंस अचानक रुक जाती हैं या उन्हें धक्का लगाकर शुरू करना पड़ता है। इन एम्बुलेंस को अक्सर निर्धारित मानदंडों से दोगुनी से ज्यादा दूरी तक चलाया गया है। कुछ पुरानी एम्बुलेंस तो चलते–चलते आग भी पकड़ चुकी हैं। इसलिए, हमें लगता है कि हम एम्बुलेंस नहीं चला रहे,बल्कि जिंदा बम चला रहे हैं,जिसमें मरीजों के साथ–साथ स्टाफ भी खतरे में है।
कुछ जगहों पर, एक ही ड्राइवर को 24 घंटे काम करना पड़ता है। इस काम के लिए मेहनताना भी बहुत कम है। 108 एम्बुलेंस ड्राइवरों ने वेतन वृद्धि, उचित काम के घंटे और अन्य मांगों को लेकर समय–समय पर विरोध प्रदर्शन किए हैं।“ – 108 एम्बुलेंस ड्राइवर
यह ध्यान देने योग्य है कि नए एम्बुलेंस टेंडर में कर्मचारियों के वेतन या काम के घंटे तय नहीं हैं, जिससे कम मजदूरी, लंबे काम के घंटे, और ठेका स्टाफ के शोषण की स्थिति जारी रहने की आशंका है।
अत्यधिक महँगी एम्बुलेंस खरीद: नए ठेके में एम्बुलेंस बाजार दर से लगभग तीन गुना कीमत पर खरीदने की अनुमति है, जिसकी आधी लागत सरकार वहन करेगी, फिर भी मालिकाना हक ठेकेदार कंपनी के पास ही रहेगा।
नकली रिकॉर्ड: ऐसे अनुभव हैं कि एम्बुलेंस डॉक्टरों को कभी-कभी नकली मामले दर्ज करने के लिए मजबूर किया जाता है, जिससे सेवा का रिकॉर्ड तो बढ़ जाता है, लेकिन इस माध्यम से रिकॉर्ड के साथ छेड़छाड़ और सरकार को गुमराह किया जाता है।
मृतकों की सवारी: एम्बुलेंस का कभी-कभी शव वाहन के तौर पर दुरुपयोग किया जाता है, जिससे स्वास्थ्य कर्मी असुरक्षित होते हैं, और लोगों के मन में इन सेवाओं की छवि धूमिल हो जाती हैं।
पीपीपी खत्म करने का कर्नाटक का फैसला, स्वास्थ्य विभाग ने एम्बुलेंस सेवा खुद के हाथ में लीं
कर्नाटक में एम्बुलेंस पीपीपी में शामिल निजी एजेंसी GVK-EMRI के साथ आई व्यापक समस्याओं के कारण, अब राज्य सरकार ने तय किया है कि ‘आरोग्य कवच’ एम्बुलेंस सेवा पूरी तरह से स्वास्थ्य विभाग द्वारा सीधे संचालित की जाएगी। राज्य के स्वास्थ्य मंत्री दिनेश गुंडू राव ने कहा है कि “इससे न केवल सेवा और प्रभावी होगी और लोगों को फायदा होगा, बल्कि राज्य के खजाने का करोड़ों रुपये भी बचेगा। … इससे सिस्टम में भी सुधार आएगा।”
जनहित की रक्षा के लिए सुझाव
महाराष्ट्र के एम्बुलेंस पीपीपी का अनुभव अलग-थलग नहीं है । यह भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र के कई पीपीपी में आम तौर पर पाई जाने वाली बुनियादी समस्याओं को स्पष्ट रूप से उजागर करता है – ज्यादा लागत, सेवा की गुणवत्ता में कमी, स्टाफ का शोषण, और जवाबदेही कम होना । इसे ध्यान में रखते हुए, यह सभी कदम तुरंत उठाए जाने की जरूरत है:
- ‘पीपीपी’ के जवाब में ‘सीसीसी’: Cancel the Current Contract(मौजूदा ठेका रद्द करो) – अत्यधिक बढ़ी हुई लागत, टेंडर में कई अनियमितताएँ और हितों के गंभीर टकराव को देखते हुए, महाराष्ट्र के मौजूदा एम्बुलेंस पीपीपी ठेके को जल्द से जल्द रद्द किया जाना चाहिए, और इस सेवा का परिचालन सार्वजनिक व्यवस्था द्वारा वापस ले लिया जाना चाहिए। एम्बुलेंस जैसी जरूरी सेवाएँ संदेहजनक निजी व्यवस्थाओं की बंधक नहीं होनी चाहिए।
- सरकारी मॉडल की दिशा अपनाएं: महाराष्ट्र में एम्बुलेंस सेवाएँ सीधे राज्य स्वास्थ्य विभाग द्वारा चलाई जानी चाहिए, जैसा कि कर्नाटक जैसे राज्यों के उदाहरणों से पता चलता है। एक अच्छी तरह से प्रबंधित सरकारी सेवा बेहतर निगरानी, कम लागत, तुरंत और बेहतर पहुँच, और बेहतर स्टाफ की स्थितियाँ सुनिश्चित कर सकती है।
- स्वतंत्र जाँच कराएँ: टेंडर प्रक्रिया, वित्तीय अनियमितताओं, और अधिकारियों, ठेकेदारों और संबद्ध राजनीतिक किरदारों की भूमिका की तुरंत समयबद्ध, स्वतंत्र जाँच करनी चाहिए। साइबर फोरेंसिक रिपोर्ट के नतीजों पर कार्रवाई की जानी चाहिए, और अनुचित आचरण के लिए जवाबदेही तय की जानी चाहिए। खराब रिकॉर्ड वाली कम्पनियाँ, जिन पर जाँच चल रही हो या या पहले से ब्लैकलिस्टि की गयी कंपनियों को किसी भी आगे के करारों से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
- पिकअप समय और मरीज ट्रांसफर के मानदंडों को सख्ती से लागू करें: पिकअप और मरीजों के ट्रांसफर से सम्बंधित समय के मानदंडों के अनुसार ही एम्बुलेंस सेवा चलाई जानी चाहिए, जैसे शहरी/ग्रामीण इलाकों के हिसाब से अधिकतम 15-30 मिनट पिकअप का समय । सिस्टम यह सुनिश्चित करे कि सभी मरीज ‘सुवर्ण काल’ (Golden hour) के भीतर जरूरी सुविधा तक पहुँच जाएँ।
- स्टाफ के अधिकार सुनिश्चित करें: एम्बुलेंस सेवाओं के मॉडल में एम्बुलेंस स्टाफ के लिए उचित मजदूरी, नियमित काम के घंटे, व्यावसायिक सुरक्षा, और शिकायत निवारण तंत्र के स्पष्ट प्रावधान शामिल होने चाहिए।
अंत में …
महाराष्ट्र का एम्बुलेंस पीपीपी कोई अकेली घटना नहीं है। यह भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र के पीपीपी में देखे जाने वाली तमाम समस्याओं का एक ज्वलंत नमूना है। भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र की ज़्यादातर पीपीपी का कुछ ऐसा ही हाल है । मुनाफाखोर ठेकेदार अत्यधिक और अनुचित दरों पर सेवाएं देते हैं, जो सार्वजनिक संसाधनों का नुक्सान करती हैं । मरीजों के लिए सेवा की गुणवत्ता अक्सर अविश्वसनीय और कम दर्जे की होती है। सेवा देने में मुख्य भूमिका निभाने वाला ठेका स्टाफ, शोषण और उपेक्षा का सामना करता है। भ्रष्टाचार, राजनीतिक हस्तक्षेप और अपारदर्शी टेंडर बहुत आम हैं, और ये जनता के भरोसे को और कम करते हैं।
महाराष्ट्र का अनुभव हमें एक व्यापक सबक देता है: बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएँ, खासकर वे जिनमें जान-मौत का सवाल हो, इन्हें आउटसोर्स नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इनसे जवाबदेही कमज़ोर होती है, और मरीजों और स्टाफ के साथ न्याय नहीं होता है। जनहित की रक्षा के लिए, महाराष्ट्र राज्य को एम्बुलेंस सेवाओं का सीधा संचालन अपने पास वापस लेना चाहिए । हमें स्वास्थ्य क्षेत्र में भ्रष्टाचार-मुक्त, लोगों को केंद्र में रखने वाली, और कर्मचारियों के साथ न्याय करने वाली व्यवस्था की मांग करनी चाहिए।
(लेखक जानकारी देने वाले एम्बुलेंस चालकों और अन्य व्यक्तियों के आभारी हैं। विश्लेषण और संपादन के लिए डॉ. अभय शुक्ला ने मदद की है)
References:
Ahana Sarkar, Vipul Parmar, Arnab Jana & Sujata Saunik (2024) Analyzing the Maharashtra Ambulance Service “108”: The Prospect and Challenges, Health Systems & Reform, 10:2, 2380251
https://sproutsnews.com/forensic-report-exposes-ambulance-tender-scam
https://x.com/VijayKumbhar62/status/1950075832065515612
Andhra Pradesh budget documents – available at www.apfinance.gov.in/budget.html