- अमन, छात्र, झारखंड
लाल ईंटों से बनी लेडी इरविन अस्पताल, रांची की भव्यता अब कई गुना बढ़ गई है, आज यह गतिविधियों से खचाखच भरा हुआ है। यह लेडी इरविन अस्पताल 1933 में छोटानागपुर का एकमात्र स्त्री रोग और प्रसूति अस्पताल के रूप में स्थापित हुआ था। बाद में इसे आम जनता के बीच बिरला अस्पताल के नाम से जाना जाने लगा क्योंकि बिरला समूह ने इसके लिए लगभग 210 एकड़ जमीन दान दी थी। तभी से यह अस्पताल इस क्षेत्र के गरीब और आदिवासी जनसंख्या के लिए, खासकर प्रसूति से संबंधित चिकित्सा सहायता के लिए, एकमात्र उम्मीद बना रहा। समय बीतने के साथ, यह एक सामान्य अस्पताल में बदल गया, जहाँ रेबीज़, टीबी, छोटे-मोटे चोट और अन्य आम बीमारियों का इलाज होने लगा।

लेकिन 2014 के मध्य में झारखंड सरकार ने एक योजना की घोषणा की, जिसका असर राज्य के सबसे बड़े सरकारी अस्पतालों में से एक पर पड़ने वाला था। प्रस्ताव था रांची सदर अस्पताल (RIMS) की प्रमुख सेवाओं को पब्लिक–प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) के ज़रिए निजीकरण करना। कागज़ पर इस योजना ने कार्यक्षमता और आधुनिकीकरण का वादा किया। लेकिन आम लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और स्वास्थ्य कर्मियों के लिए तुरंत यह खतरे की घंटी थी: क्या गरीब और निचले तबके के लोग अब भी सस्ता इलाज पा सकेंगे या फिर सार्वजनिक स्वास्थ्य पूरी तरह कॉरपोरेट के हाथों में चला जाएगा?
समस्या से भरा निजीकरण प्रस्ताव (PPP)
यह प्रस्ताव 2014 में मुख्य मंत्री रघुबर दास के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की तरफ से आया। इसमें डायग्नॉस्टिक सेवाओं, पैथोलॉजी लैब्स और कई गैर-नैदानिक कार्यों को निजी कंपनियों को सौंपने की बात थी। तर्क वही पुराना था – निजी निवेश से बेहतर सुविधाएँ आएँगी, देरी कम होगी, प्रबंधन सुधरेगा। लेकिन कार्यकर्ताओं ने साफ कहा कि ऐसा निजीकरण अक्सर स्वास्थ्य सेवाओं की लागत बढ़ा देता है, गरीब वर्ग बाहर हो जाता है और सामाजिक जवाबदेही खत्म हो जाती है।
असल में, इंटरनेशनल फाइनेंस कॉरपोरेशन या IFC (जो वर्ल्ड बैंक की प्राइवेट सेक्टर निवेश की शाखा है), ने अपनी वेबसाइट पर रांची सदर अस्पताल को PPP के तौर पर सूचीबद्ध किया था। IFC को इस प्रोजेक्ट का ट्रांजैक्शन एडवाइज़र बनाया गया था। इसकी जिम्मेदारी थी – योजना बनाना, निजी कंपनियों को लुभाना, बोली के दस्तावेज तैयार करना और ठेका देने तक सरकार की मदद करना। 100 करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट का खाका बना, जिसमें झारखंड सरकार और निजी स्वास्थ्य कंपनियों की साझेदारी थी। जल्द ही मेदांता, अपोलो, एस्कॉर्ट्स जैसी कंपनियों के CEO रांची पहुँच गए। यानी यह पूरी योजना वर्ल्ड बैंक की एजेंसी द्वारा तैयार की गई थी, ताकि रांची के इस प्रमुख सरकारी अस्पताल को कॉरपोरेट कंपनियों को सौंपा जा सके।
जनता का प्रतिरोध
रांची की कई सामाजिक संस्थाओं ने इस बड़े सौंपे जाने के खतरे को पहचाना। रांची सदर अस्पताल कोई मामूली अस्पताल नहीं है; यह पूरे झारखंड के हज़ारों गरीब और हाशिए पर पड़े मरीजों के लिए जीवन रेखा है। इसका निजीकरण मतलब गरीबों के लिए ज़रूरी इलाज पहुँच से बाहर। कई सिविल सोसायटी संगठन, जन विज्ञान संस्थाएँ, महिला, युवा और आदिवासी संगठन, कारीगर और मज़दूर यूनियनें, सड़क विक्रेता, डॉक्टर, स्वास्थ्य कर्मी, राजनीतिक दल और कई बुद्धिजीवी जैसे पी.पी. वर्मा, फादर स्टेन स्वामी, प्रो. प्रभात सिंह, दयामनी बरला और डॉ. करुणा झा आदि ने सदर अस्पताल के निजीकरण का विरोध किया, जो आम लोगों को मुफ्त चिकित्सा सुविधाएँ दे रहा था।
जन स्वास्थ्य अभियान (Jan Swasthya Abhiyan) सहित इन सभी संगठनों और व्यक्तियों ने मिलकर “सदर अस्पताल बचाओ आंदोलन” बनाया। इस आंदोलन ने आम लोगों की कल्पना को छुआ और वे सक्रिय रूप से इस विरोध में शामिल होने लगे। झारखंड नागरिक प्रयास, झारखंड विज्ञान मंच, साइंस फॉर सोसाइटी, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, हेल्थ वर्कर्स एसोसिएशन, मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव यूनियन (BSSR), इंडियन मेडिकल एसोसिएशन जैसे संगठन जुड़े। SUCI, CPI, CPI(M), RJD, समाजवादी कार्यकर्ता और कई आदिवासी नेता व संगठन भी साथ आए। XISS जैसे शैक्षणिक संस्थानों ने भी आंदोलन को समर्थन दिया। राज्यपाल, मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य सचिव को ज्ञापन दिए गए। लेकिन हमेशा की तरह प्रशासन ने टालमटोल शुरू कर दी।
पहला सार्वजनिक कदम 28 जुलाई 2014 को हुआ, जब इस मंच ने मुख्यमंत्री को ज्ञापन सौंपा। इसमें स्पष्ट कहा गया कि अस्पताल को निजी हाथों में देने का विरोध है और यह सरकारी नियंत्रण में ही रहना चाहिए। इसके बाद 3 अगस्त 2014 को फिरायालाल चौक पर हस्ताक्षर अभियान शुरू किया गया, जो रांची का व्यस्त इलाका है। इस खुले अभियान में हज़ारों लोगों ने निजीकरण के खिलाफ हस्ताक्षर किए। यह अभियान पूरे शहर में चर्चा का विषय बन गया और लोगों को एहसास हुआ कि उनके अस्पताल के बारे में उनकी राय बिना पूछे बड़ा फैसला किया जा रहा है।

जल्द ही नुक्कड़ सभा, पर्चे बाँटना, जनसभा जैसी गतिविधियाँ शुरू हुईं। अक्टूबर-नवंबर 2014 तक रांची में कई जगहों पर विरोध प्रदर्शन होने लगे, जिनमें अस्पताल और विधानसभा के बाहर भी धरने शामिल थे। प्रभात खबर और दैनिक भास्कर ने रिपोर्ट की कि कार्यकर्ता तख्तियाँ लेकर लोगों को समझा रहे थे कि PPP का मतलब होगा ज़्यादा फीस और कम मुफ्त सेवाएँ।

व्यापक एकजुटता ने आगे बढ़ाया आंदोलन
यह आंदोलन सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के व्यापक गठजोड़ पर आधारित था, जिसमें वामपंथी और समाजवादी दलों के कार्यकर्ता, झामुमो के धड़े, जन स्वास्थ्य अभियान (JSA), राइट टू फूड अभियान, आदिवासी संगठन, वकील, कॉलेज फैकल्टी, डॉक्टर और छात्र यूनियन शामिल थे। महत्वपूर्ण यह था कि RIMS अस्पताल के कर्मचारी – नर्स और सरकारी डॉक्टरों ने भी निजीकरण का खुलकर विरोध किया, क्योंकि उन्हें नौकरी जाने और पेशेवर पहचान खोने का डर था। यह व्यापक सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन आंदोलन के फैलाव का मुख्य कारण बना।
आंदोलन में लगातार प्रदर्शन होते रहे। जून 2015 में प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल से मुलाकात की और माँग रखी कि सदर अस्पताल के सभी विभाग सरकारी ही रहें, बेड क्षमता बढ़ाई जाए और अस्पताल को मज़बूत किया जाए, निजीकरण से कमजोर न किया जाए। जून 2015 के एक धरने में 8 सूत्री माँग पत्र रखा गया। उस समय की ख़बरों में कहा गया कि सरकार ने भले ही PPP का ऐलान कर दिया था, लेकिन “कोई औपचारिक प्रक्रिया” शुरू नहीं हुई थी। यह साफ संकेत था कि जनता का दबाव असर दिखा रहा था और निजीकरण की योजना रुक गई थी। बस्ती-मोहल्ला अभियान, हस्ताक्षर अभियान, धरना-प्रदर्शन ने सरकार को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।


इसी बीच एक स्थानीय व्यवसायी ने, जिसके अपने कुछ आर्थिक हित थे, राज्य हाई कोर्ट में PIL दायर कर दी। “सदर अस्पताल बचाओ आंदोलन” ने इसे अवसर मानकर हस्तक्षेप किया। रांची सिटिज़न फ़ोरम के चेयरमैन, वरिष्ठ वकील एडवोकेट एम.के. हबीब ने डॉ. प्रभात सिंह को इस PIL में इंटरवेनर बनने की सलाह दी। एडवोकेट जयंत पांडे ने, हबीब साहब के मार्गदर्शन में, कानूनी लड़ाई लड़ी। इंटरवेनर ने कई दस्तावेज़ रखे, जिससे साबित हुआ कि मेदांता, अपोलो और एस्कॉर्ट्स जैसी कंपनियों से साझेदारी होने पर आम लोगों के इलाज की लागत बहुत बढ़ जाएगी और मुफ्त सेवाएँ बंद हो जाएँगी।
तुलनात्मक आँकड़े दिए गए कि यह व्यवस्था झारखंड के किसी भी निजी अस्पताल से भी महँगी होगी। साधारण बीमारियों का इलाज नज़रअंदाज होगा, और केवल महँगे इलाज पर ज़ोर रहेगा। यह कानूनी लड़ाई तब निर्णायक मोड़ पर आई, जब कोर्ट ने मूल PIL को नज़रअंदाज किया और डॉ. प्रभात सिंह का इंटरवेंशन मुख्य मुद्दा बन गया। कोर्ट ने स्वास्थ्य सचिव और स्वास्थ्य मंत्री को तलब किया। एडवोकेट हबीब के तर्क और जनता के आंदोलन के दस्तावेज़ कोर्ट ने गंभीरता से स्वीकार किए। रघुवर दास के नेतृत्व वाली सरकार और IFC इन मजबूत साक्ष्यों का जवाब नहीं दे पाए।
जनता की हुई जीत
कोर्ट ने राज्य सरकार को निजीकरण प्रस्ताव रद्द करने और अनुबंध में बताए दायित्व खुद पूरा करने का आदेश दिया। इसमें 500 बेड वाले आधुनिक सार्वजनिक अस्पताल, OPD सुविधा, 50 मेडिकल सीटें और 200 पैरामेडिकल सीटों की व्यवस्था शामिल थी।
झारखंड सरकार को पीछे हटना पड़ा और स्वास्थ्य मंत्री ने सार्वजनिक रूप से आश्वासन दिया कि जनता की सहमति के बिना निजीकरण नहीं होगा। वर्ल्ड बैंक–IFC का निजीकरण प्रस्ताव जनता के आंदोलन ने ध्वस्त कर दिया। रांची का सबसे बड़ा सार्वजनिक अस्पताल सरकार के हाथों में ही रहा।

आज भारत में स्वास्थ्य के निजीकरण को वर्ल्ड बैंक समेत अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय ताकतें आगे बढ़ा रही हैं। लेकिन रांची का यह आंदोलन दिखाता है कि अगर जनता संगठित और सक्रिय हो, तो ताकतवर सरकार और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ भी पीछे हट सकती हैं। रांची सदर अस्पताल आंदोलन ने साबित किया कि साधारण लोग भी ज्ञापन, हस्ताक्षर अभियान, नुक्कड़ सभा, धरना, कानूनी हस्तक्षेप और लगातार दबाव जैसे साधारण तरीकों से असाधारण परिणाम ला सकते हैं।
आज इरविन अस्पताल की पुरानी शान वापस आ गई है, यह अब 500 बेड वाला अस्पताल है और स्त्री रोग व प्रसूति विभाग में 20 पीजी सीटें भी बढ़ाई गई हैं। इस आंदोलन से ही झारखंड स्वास्थ्य अभियान का जन्म हुआ, जिसमें आंदोलन से जुड़े सभी लोग शामिल हुए। एक “जन स्वास्थ्य घोषणा पत्र” बना, जिसे उस समय झारखंड की राज्यपाल श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को सौंपा गया और उन्होंने इसे सकारात्मक प्रतिक्रिया दी।
आज झारखंड सरकार फिर से छह जिला अस्पतालों को PPP मॉडल पर निजीकरण की योजना बना रही है। इस चुनौती का जवाब देने के लिए जन स्वास्थ्य अभियान–झारखंड ने राज्यव्यापी आंदोलन छेड़ने का फैसला किया है। 3 अगस्त 2025 को JSA झारखंड के साथियों ने बैठक कर यह तय किया कि सरकारी अस्पतालों के निजीकरण को रोकने के लिए सशक्त आंदोलन खड़ा किया जाएगा। इस विषय में एक विरोध समिति बनाई गई है। JSA झारखंड को विश्वास है कि एक बार फिर जनता झारखंड में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की नापाक कोशिश को नाकाम करेगी।
